दरवाजे में झुका सा खड़ा आदमी... लिबास बहुत ही ज्यादा तंग... दोनों हाथ कोट की जेब में ठुंसे... सांसें उखड़ी हुईं पीला चेहरा पीड़ा से विकृत... दहशत से फटी पड़ रही आंखें...।
अजय उसकी और लपका...।
आगंतुक घुटनों के बल गिरकर फर्श पर फैल गया... सांस के साथ खून के झाग मुंह से निकले... फड़फड़ाते होठों से फुसफुसाती सी आवाज उभरी – "व...वे... न...हीं... छीन सके... सब...कुछ... का...ली... डाय...री...।"
इन्हीं अंतिम शब्दों के साथ उसने दम तोड़ दिया। वह मेघराज सक्सेना था – प्राइवेट डिटेक्टिव के पेशे की आड़ में ब्लैकमेलर।
जेबों की तलाशी में कोई खास चीज अजय को नहीं मिली। लेकिन मुट्ठी की शक्ल में भिंचे एक हाथ में पीले कागज का टुकड़ा दबा था। उंगलियां सीधी करके अजय ने मुट्ठी खोली। कागज निकाल लिया। तीन साइडों से बेतरतीबी से काटा और देखने में मामूली उस टुकड़े की प्रत्यक्षत: जरूर कोई भारी अहमियत थी...।
अचानक गले पड़ी इस मुसीबत के फौरन बाद घटनाचक्र तेजी से घुमा और अजय और नीलम उसमें उलझते चले गए।
खुद को डायवोर्स रैकेट की डिकॉय गर्ल बताने वाली हसीन मोनार की अजय से मदद की याचना... पुलिस इन्सपैक्टर तिवारी का आई.बी. का हवाला देते हुए अजय पर खून का इल्जाम... पेशेवर बदमाशों का पहले नीलम फिर अजय पर हमला करके उन पर काबू पाना... कागज के टुकड़े के लिए अजय को टॉर्चर करन... नीलम का अपहरण… उसके जरिए अजय पर उसी कागज के लिए दबाब... आई.बी. के नकली आफिसर का दखल... मिली भगत से मोटी रकम की लूट... लूट की रकम गायब... लुटेरों में खून खराबा... और इन तमाम बखेड़ों की जड़ थी - एक डायरी।
(रहस्य, रोमांच से भरपूर रोचक उपन्यास)