गुरू के पास बैठना यही उपनिषद् हैं। इस सामीप्य में ही आपको बहुत कुछ भासित हो। जाता है। अकथनीय ग्रहीत हो जाता है, अवर्गीन हृदयंगम हो जाता है। इस स्थिति में वाक् तो वाहन मात्र हैं। शब्दों के मध्य के मन में ही बहुत कुछ घटित हो जाता है ऊज उतरती कुकृपा बरसती हैं.....आनन्द व्याप्तता और इस' से जीवन का रूपान्तरण हो जाता है।। गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर अतः, सगीप बैठे और गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी की इस प्रांजल भाष्य श्रृंखला में सिक्त हो लें, क्योंकि इस गहन योगसार उपनिषद के प्रदीपन से यर्थाथ 'योग' का सार तत्व उदघाटित हुआ है।। उपनिषद के यह अद्वितीय भाष्य गुरुदेव श्री श्री के वेगिस (स्विटजरलैंड) में सच्चे साधकों को विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत दिये गए ओजपूर्ण प्रवचनों के अंश हैं।। समर्पण और बंधन "मस्तिष्क में विचारों का बोझ लादें तो मोक्ष संभव नहीं। स्वातंत्रय और समर्पण में यद्यपि विरोधाभास लगता है, किन्तु जीवन में इनका संग साथ गहरा हैं। यह एक विडम्बना है कि नहीं मूल–स्वरूप से मिलन "जब विचारों की लहरें नीरव हों तो इस शांत चित्तावरथा में आप अपने अन्तर सागर की गहराई के दर्शन पा सकते हैं, मूल-स्वरूप से मिल सकते हैं। उस गहराई में, उसे तल पर आप 'दिव्य' हैं चेतना की उस गहनता में अंतस की गहराई को देख पाना, और उससे संयोग ही 'योग' है।" आवरण के परे "एक सुन्दर उपहार अति आकर्षक आवरण पत्र (रपिंग पेपर) में बंद आपको मिला।। किन्तु आप यदि रैपिंग पेपर- बाह्य आवरण के मोह में पड़ गए तो संभवतः आप उपहार खोलें भी नहीं।” दृष्टा बनो। आप नींद के साक्षी हैं। आप कर्म के साक्षी हैं। जो भी घट रहा है आप उस सब के साक्षी हैं। आप तो ज्ञान के भी साक्षी हैं।” उलझ गए तो फिर आओ। पास बैठो ज्ञान की जीत से अपने अंतस् की ज्योति प्रज्जवलित होने दो।
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